Sankata Devi
#वाराणसी SANKATA DEVI
संकटा देवी
प्रणाम🙏
ॐ नमः शिवाय
संकटा देवी जी
स्वरुप ध्यान :-
भुजैस्तु दशभिर्युक्तां लोचनत्रयभूषिताम्।
मालाकमण्डलुयुतां पद्मशंखगदायुताम्।।
त्रिशूलडमरूधरां खड्गचर्मविभूषिताम्।
वरदाभयहस्तां तां प्रणम्यविधिनन्दन:।।
अर्थात :-
देवी के दस भुजा और तीन नेत्र है । अपने दस भुजाओं में वो माला, कमण्डल, पद्म, शंख, गदा, त्रिशूल डमरू, खद्ग, वर तथा अभय मुद्रा धारण करती है । ऐसी देवी मेरा को प्रणाम हो ।
#Kashi स्तिथ गंगा घाट किनारे स्थित मां संकटा का मंदिर सिद्धपीठ है। यहां पर माता की जितनी अलौकिक मूर्ति स्थापित है उतनी ही अद्भृत मंदिर की कहानी भी है। धार्मिक मान्यता है कि जब मां सती ने आत्मदाह किया था तो भगवान शिव बहुत व्याकुल हो गये थे। भगवान शिव ने खुद मा संकटा की पूजा की थी इसके बाद भगवान शिव की व्याकुलता खत्म हो गयी थी और मां पार्वती का साथ मिला था। धार्मिक मान्यताओं के अनुसार पांडवों जब अज्ञातवास में थे तो उस समय वह आनंद वन (काशी को पहले आनंद वन भी कहते थे) आये थे और मां संकटा की भव्य प्रतिमा स्थापित कर बिना अन्न-जल ग्रहण किये ही एक पैर पर खड़े होकर पांचों भाईयों ने पूजा की थी। इसके बाद मां संकटा प्रकट हुई और आशीर्वाद दिया कि गो माता की सेवा करने पर उन्हें लक्ष्मी व वैभव की प्राप्ति होगी। पांडवों के सारे संकट दूर हो जायेंगे। इसके बाद महाभारत के युद्ध में पांडवों ने कौरवों को पराजित किया था।
इस स्तोत्र का पाठ पुत्र-पौत्र की वृद्धि करने वाला है. संकट का नाश करने वाला यह स्तोत्र तीनों लोकों में प्रसिद्ध है. यह महाबंध्या स्त्री को भी संतान प्राप्ति कराने वाला है।
मार्कण्डेय उवाच – Markandeya Uvach
आनन्दकानने देवी संकटा नाम विश्रुता।
वीरेश्वरोत्तमे भागे पूर्वं चन्द्रेश्वरस्य च।।8।।
श्रृणु नामाष्टकं तस्या: सर्वसिद्धिकरं नृणाम्।
संकटा प्रथमं नाम द्वितीयं विजया तथा।।9।।
तृतीयं कामदा प्रोक्तं चतुर्थं दु:खहारिणी।
शर्वाणी पंचमं नाम षष्ठं कात्यायनी तथा।।10।।
सप्तमं भीमनयना सर्वरोगहराSराष्टमम्।
नामाष्टकमिदं पुण्यं त्रिसंध्यं श्रद्धयाSन्वित:।।11।।
य: पठेत्पाठयेद्वापि नरो मुच्येत संकटात्।
इत्युक्त्वा तु द्विजश्रेष्ठमृषिर्वाराणसीं ययौ।।12।।
इति तस्य वच: श्रुत्वा नारदो हर्षनिर्भर:।
तत: सम्पूजितां देवीं वीरेश्वरसमन्विताम्।।13।।
भुजैस्तु दशभिर्युक्तां लोचनत्रयभूषिताम्।
मालाकमण्डलुयुतां पद्मशंखगदायुताम्।।14।।
त्रिशूलडमरूधरां खड्गचर्मविभूषिताम्।
वरदाभयहस्तां तां प्रणम्यविधिनन्दन:।।15।।
वारत्रयं गृहीत्वा तु ततो विष्णुपुरं ययौ।
एतत्स्तोत्रस्य पठनं पुत्रपौत्रविवर्धनम्।।16।।
संकष्टनाशनं चैव त्रिषु लोकेषु विश्रुतम्।
गोपनीयं प्रयत्नेन महावन्ध्याप्रसूतिकृत्।।17।।
।।इति श्रीपद्ममहापुराणे संकष्टनामाष्टकं सम्पूर्णम्।।
VikaasAnupamMaarg
mahasiddhajvc@gmail.com
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